कलावा क्रांति: कांग्रेस के ‘सेक्युलर’ चश्मे से भारतीय टेलीविज़न का ‘शुद्धिकरण’
वाह! क्या दिन थे वो भी, जब दूरदर्शन पर ‘संस्कार’ की इतनी गहरी चिंता थी कि कलावा तक बर्दाश्त नहीं था। लगता है कांग्रेस सरकार में ‘सेक्युलरिज़्म’ की परिभाषा इतनी सख्त थी कि अगर किसी एंकर के हाथ में कलावा दिख जाता, तो तुरंत ‘धर्मनिरपेक्षता’ का संतुलन बिगड़ जाता!
सोचिए, कितने बड़े षड्यंत्र से देश को बचाया गया होगा! अगर कलावा दिख जाता तो शायद तुरंत ‘राष्ट्रवाद’ का भूत दूरदर्शन पर मंडराने लगता और फिर ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ पर खतरा आ जाता! शुक्र है, उन दूरदर्शी अधिकारियों का जिन्होंने समय रहते ‘कलावा-क्रांति’ को दबा दिया। कहीं ऐसा न हो कि कलावा पहनकर कोई एंकर ‘जय श्री राम’ बोल दे और फिर देश में दंगे फसाद हो जाएं (जैसी कि कल्पना की जाती है)!
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और राहुल गांधी की तस्वीर भी क्या खूब लगाई है! बेचारे, तब शायद उन्हें पता भी नहीं होगा कि उनके राज में कलावा एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का मुद्दा बन गया था। उन्हें तो बस आलू से सोना बनाने और ‘भारत जोड़ो’ पर ध्यान देना था, कलावा जैसे छोटे-मोटे ‘धार्मिक’ मुद्दों के लिए कहाँ समय था!
अब जब ‘हिंदुओं के देश में हिंदू पहचान से इतनी नफरत?’ का सवाल उठा है, तो बस एक ही बात सूझती है – भई, ये ‘नफरत’ नहीं, ये तो ‘सेक्युलरिज़्म’ की नई परिभाषा थी! वो वाली, जिसमें सब कुछ ‘सेक्युलर’ हो, सिवाय उन चीज़ों के जो किसी एक धर्म की पहचान हों। और अगर वो धर्म बहुसंख्यक हो, तो फिर तो पूछो ही मत!

तो आइए, तालियाँ बजाएं उन ‘महान’ सोच वाले लोगों के लिए, जिन्होंने सरकारी टीवी को ‘शुद्ध’ रखने के लिए कलावा तक को परदे के पीछे धकेल दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि कलावा नहीं दिखेगा, तो ‘हिंदुत्व’ अपने आप ही गायब हो जाएगा। कमाल है! लगता है वो सिर्फ हाथ का धागा नहीं, बल्कि पूरे देश का ‘धागा’ बदलना चाहते थे!
शायद अगला खुलासा ये होगा कि सरकारी दफ्तरों में तिलक लगाना भी ‘सांप्रदायिक’ माना जाता था, और भजन गाना तो ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में आता होगा! इंतजार कीजिए, अभी और भी ‘अविश्वसनीय’ खुलासे बाकी हैं, जो हमें सिखाएंगे कि असली ‘सेक्युलरिज़्म’ कैसे कायम किया जाता है – सब कुछ छुपाकर!