Sunday, July 6, 2025
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Betul samachar : आज़ादी के 78 साल बाद भी अंधेरे में डूबे बैतूल के गांव: विकास की किरण को तरसते 400 परिवार

आज़ादी के 78 साल बाद भी अंधेरे में डूबे बैतूल के गांव: विकास की किरण को तरसते 400 परिवा

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बैतूल, मध्य प्रदेश: भारत अपनी आज़ादी के 78वें वर्ष में प्रवेश करने वाला है, लेकिन मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में महाराष्ट्र की सीमा से सटे कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां आज भी विकास की कोई बयार नहीं पहुंची है। बानूर पंचायत के बुरहानपुर, ससोदा और धोत्रा गांव में रहने वाले करीब 400 परिवार आज भी आदिम युग सा जीवन जीने को मजबूर हैं, जहां बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं महज एक सपना हैं।

इन गांवों के निवासियों के लिए ‘हाईटेक टेक्नोलॉजी’, ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे शब्द किसी अजूबे से कम नहीं हैं। सरकार की तमाम योजनाएं इन तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं, और ग्रामीण हर सुबह से रात तक इन बुनियादी चुनौतियों से जूझते रहते हैं।

जीवन का संघर्ष: पानी, बिजली और शिक्षा का अभाव

ग्रामीणों के लिए पेयजल सबसे बड़ी समस्या है। हैंडपंप के लिए गड्ढे तो खोदे गए, लेकिन आज तक हैंडपंप नहीं लगे। नतीजतन, ग्रामीणों को पीने के पानी के लिए हर रोज पहाड़ चढ़कर नदी में ‘झिरिया’ बनाकर पानी भरना पड़ता है। यह दूषित पानी अक्सर बीमारियों का कारण बनता है, लेकिन इलाज के लिए आसपास कोई अस्पताल नहीं है। ग्रामीणों को इलाज के लिए महाराष्ट्र के सीमावर्ती जिले अमरावती जाना पड़ता है।

बिजली की कमी एक और बड़ी चुनौती है। आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी इन गांवों में बिजली नहीं पहुंची है। कई पीढ़ियों ने दीये की रोशनी में जिंदगी गुजार दी, लेकिन उन्हें बिजली के दर्शन नहीं हुए। शाम होते ही ये गांव अंधेरे में डूब जाते हैं, और मोबाइल चार्ज करने जैसी छोटी सी ज़रूरत के लिए भी ग्रामीणों को सीमा पार महाराष्ट्र जाना पड़ता है। तुलसीराम भुसुमकर जैसे ग्रामीण बताते हैं कि वे सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते थक गए हैं, लेकिन नतीजा सिफर रहा है।

शिक्षा का हाल भी बेहाल है। इन गांवों के लिए 1997 में एक स्कूल खोला गया था, लेकिन वह भी 2008 में बंद हो गया और तब से बंद ही है। बच्चों को पढ़ने के लिए महाराष्ट्र जाना पड़ता है। राशन की दुकान या गेहूं पिसवाने की सुविधा भी यहां उपलब्ध नहीं है, जिसके चलते ग्रामीणों को अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए अमरावती के गांवों पर निर्भर रहना पड़ता है।

जनप्रतिनिधियों की उदासीनता और प्रशासन की दलीलें

ग्रामीणों का कहना है कि जनप्रतिनिधि चुनाव के समय तो आते हैं, वोट मांगते हैं और आश्वासन देते हैं, लेकिन चुनाव के बाद फिर कभी दिखाई नहीं देते। भगवानदीन धोटे और लाला सावरकर जैसे ग्रामीण इस बात पर जोर देते हैं कि जब वे मूलभूत सुविधाओं से ही वंचित हैं, तो उनके लिए कैसी आजादी? उन्हें हर जरूरत के लिए महाराष्ट्र जाना पड़ता है, जिससे उन्हें अपनी ‘आजादी’ का एहसास नहीं होता।

जब नगर पंचायत भैंसदेही के सीईओ देवेंद्र दीक्षित से इस समस्या के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि यदि महाराष्ट्र की तरफ से बिजली के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) मिल जाता, तो कम खर्चे में काम हो जाता। उन्होंने यह भी बताया कि उच्च अधिकारियों द्वारा इस संबंध में प्रयास किए जा रहे होंगे, और स्थानीय अधिकारी भी जल्द से जल्द तीनों गांवों में बिजली पहुंचाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, उन्होंने यह भी जोड़ा कि ये वनग्राम हैं, इसलिए वन विभाग की अनुमति भी आवश्यक है।

बैतूल के इन गांवों की कहानी एक दुखद सच्चाई बयां करती है, जहां विकास की किरण अभी तक नहीं पहुंची है। उम्मीद है कि प्रशासन और जनप्रतिनिधि जल्द ही इन ग्रामीणों की दुर्दशा पर ध्यान देंगे और उन्हें भी देश के बाकी हिस्सों की तरह मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराकर ‘आजादी’ का सही अर्थ समझाएंगे।

 

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