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**बैतूल जिला अस्पताल: ‘सांईस हाउस’ का ‘जांच घर’ या ‘मुनाफा घर’? मरीजों के टेस्ट, जेबों का ‘कष्ट’**
**Betul News ** बैतूल जिला अस्पताल इन दिनों मरीजों का इलाज कम, और निजी लैब ‘सांईस हाउस’ की ‘आओ-भगत’ ज्यादा कर रहा है। खबर मिली है कि यहां मरीजों को जबरन ऐसे-ऐसे टेस्ट करवाए जा रहे हैं, जिनकी शायद उन्हें जरूरत भी न हो। लगता है, अस्पताल ने ‘सेवा परमो धर्मः’ से बदलकर ‘लाभ परमो धर्मः’ का नया मंत्र अपना लिया है।
**सांईस हाउस: जहां ‘विज्ञान’ से ज्यादा ‘वाणिज्य’ है**
इस ‘सांईस हाउस’ की महिमा ऐसी है कि इसके दरवाजे हर मरीज के लिए खुले रहते हैं, भले ही उसे जांच की जरूरत हो या न हो। सूत्रों का कहना है कि हर दिन लगभग 100 टेस्ट इस ‘महान’ लैब को सौंपे जाते हैं। हिसाब लगाया जाए तो एक महीने में यह लैब अस्पताल को 35 से 40 लाख रुपये का ‘प्रसाद’ चढ़ाती है। अब ये ‘प्रसाद’ अस्पताल प्रशासन की जेब में जाता है या किसी ‘ऊपर वाले’ के खाते में, यह तो सिर्फ जांच का विषय है। लेकिन एक बात साफ है, ‘सांईस हाउस’ नाम सुनकर लगता है कि यहां विज्ञान की बात होती होगी, पर असल में यहां ‘वाणिज्य’ का बोलबाला है।
**सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था: ‘राम भरोसे’ या ‘लाभ भरोसे’?
हमारे देश में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का नारा है, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका इलाज’। पर बैतूल जिला अस्पताल में तो लगता है ‘सबका साथ, सांईस हाउस का विकास, मरीजों का कष्ट’ वाला सिद्धांत लागू है। सरकारें गांव-गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोलकर जांचों की व्यवस्था करने का दम भरती हैं। पर यहां तो जिला मुख्यालय पर ही निजी लैब को ‘पेट भरवाया’ जा रहा है। क्या यही है ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नया रूप, जहां सरकारी अस्पताल भी निजी कंपनियों पर निर्भर हो जाएं?
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**मरीजों की व्यथा: ‘बीमारी एक, खर्चे अनेक’**
गरीब मरीज बेचारा, एक तो बीमारी से जूझ रहा है, ऊपर से उस पर अनावश्यक जांचों का बोझ। जब डॉक्टर साहब यह कह दें कि “ये टेस्ट करवा लो, इससे हमें भी फायदा है और तुम्हें भी… बाद में पता चलेगा फायदा किसे हुआ”, तो मरीज की हिम्मत कहां कि वह ना कहे। और अगर गलती से किसी मरीज ने पूछ लिया कि “साहब, ये टेस्ट क्यों करवा रहे हैं?”, तो जवाब मिलता है, “ज्ञान मत झाड़ो, करवाओ तो करवाओ, नहीं तो बाहर जाओ!” बेचारा मरीज, क्या करे? उसे तो लगता है कि ये टेस्ट नहीं, बल्कि ‘विश्वास टेस्ट’ है, जिसमें मरीज के विश्वास की ही बलि दी जाती है।
**अस्पताल प्रशासन: ‘नियमों के राजा’ या ‘लाभ के गुलाम’?**
सवाल यह है कि ये सब हो कैसे रहा है? क्या अस्पताल प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं? या फिर वे जानबूझकर आंखें मूंदे हुए हैं? अगर किसी कर्मचारी ने आवाज उठाई, तो शायद उसे तुरंत ‘स्थानांतरण’ का ‘प्रसाद’ मिल जाए। वैसे भी आजकल सरकारी नौकरी में ‘ईमानदारी’ एक ‘बीमारी’ मानी जाती है, जिसका इलाज ‘तबादले’ से होता है।
यह मामला सिर्फ बैतूल का नहीं, बल्कि पूरे देश की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का प्रतिबिंब है। जब तक ‘सेवा भाव’ की जगह ‘मुनाफा भाव’ प्रमुख रहेगा, तब तक मरीजों को ऐसी ही ‘लूट’ का सामना करना पड़ेगा। उम्मीद करते हैं कि कोई ‘जागरूक आत्मा’ इस पर ध्यान देगी और मरीजों को इस ‘टेस्टिंग-टैक्सिंग’ से मुक्ति मिलेगी। तब तक, मरीज अपनी जेबें मजबूत रखें, क्योंकि बीमारी के साथ-साथ ‘टेस्टिंग’ भी अब एक ‘मजबूरी’ बन गई है।