बैतूल के शराब ठेकेदारों का ‘शराब-राज’: ग्राहक बने ‘लूट के शिकार’, प्रशासन ‘मौन व्रत’ पर!

 

बैतूल के शराब ठेकेदारों का ‘शराब-राज’: ग्राहक बने ‘लूट के शिकार’, प्रशासन ‘मौन व्रत’ पर!

बैतूल में शराब ठेकेदारों का क्या कहने! उन्होंने तो अपना ही ‘शराब-राज’ स्थापित कर लिया है। यहाँ न कोई रेट लिस्ट है, न कोई पक्का बिल। लगता है, ठेकेदारों ने सीधे-सीधे संविधान की जगह अपनी ‘ठेकेदार संहिता’ लागू कर दी है, जिसमें ग्राहकों को खुलेआम लूटने की पूरी आजादी है।

अब ग्राहकों को क्या पता, कौन सी बोतल कितने की है? यहाँ तो हर ग्राहक अपनी किस्मत का ‘पैग’ पी रहा है। ठेकेदार जब चाहे, जिस दाम पर चाहे, बोतल पकड़ा देता है और ग्राहक बेचारा, प्यास से बेहाल, चुपचाप लुटाकर चल देता है। यह तो सरासर ‘धोखाधड़ी’ है, लेकिन बैतूल में इसे ‘व्यवसाय’ कहते हैं!

सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि यह सब खुलेआम चल रहा है और हमारा प्रशासन ‘मौन व्रत’ पर बैठा है। शायद उन्हें लगता है कि यह उनका काम नहीं, या फिर वे इस ‘लूट के खेल’ में अपनी आँखें बंद रखना ही बेहतर समझते हैं। क्या प्रशासन को ये ‘लुटेरे ठेकेदार’ दिखाई नहीं देते, या फिर उन्हें दिखकर भी अनदेखा करने की आदत पड़ गई है?



लगता है, बैतूल के शराब ठेकेदारों ने ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘पारदर्शिता’ जैसे शब्दों को अपने शब्दकोश से निकाल फेंका है। यहाँ सब कुछ ‘अंधेरगर्दी’ और ‘मनमर्जी’ से चलता है। गरीब और मध्यम वर्ग के लोग अपनी खून-पसीने की कमाई लुटाकर शराब पीने को मजबूर हैं, और कोई उनकी सुनने वाला नहीं।

यह स्थिति तो ऐसी है, जैसे ठेकेदारों ने प्रशासन को भी अपने ‘अधिकार क्षेत्र’ से बाहर कर दिया हो। वरना क्या मजाल कि कोई नियम-कानून ताक पर रखकर सरेआम जनता की जेब काटे? बैतूल में तो ऐसा लगता है कि शराब ठेकेदार ही असली ‘सरकार’ हैं और जनता बस उनके रहमोकरम पर!



अतिरिक्त व्यंग्यात्मक बिंदु:

* ‘अच्छे दिन’ शराबियों के लिए: बैतूल में अगर किसी के ‘अच्छे दिन’ आए हैं, तो वह शायद शराब ठेकेदार और वे लोग हैं जो इस ‘व्यवस्था’ को बनाए रखने में मदद करते हैं। बाकी आम जनता तो बस अपनी जेब कटवाती रहे। क्या यह ‘खुशहाल मध्यप्रदेश’ की असली तस्वीर है?

* प्रशासन का ‘नियमों से परहेज’: लगता है बैतूल का प्रशासन नियमों और कानूनों से कुछ ज्यादा ही ‘परहेज’ करता है। रेट लिस्ट लगाना, पक्का बिल देना – ये तो बहुत ही ‘छोटे’ काम हैं। बड़े अधिकारी शायद इन ‘छोटी-मोटी’ बातों में पड़ना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं।

* दुकानें कम, लूट ज्यादा: शायद ठेकेदारों ने आपस में यह तय कर लिया है कि दुकानें भले ही कम हों, लेकिन मुनाफा पूरा वसूल किया जाए। यह दर्शाता है कि आपूर्ति और मांग के इस खेल में, ग्राहक हमेशा हारने वाला होता है जब नियंत्रण पूरी तरह से ठेकेदारों के हाथ में हो।

* उपभोक्ता अधिकार ‘नशे में चूर’: इस पूरे खेल में उपभोक्ता अधिकार भी लगता है शराब के नशे में चूर हो गए हैं। ग्राहकों को पता ही नहीं कि उनके क्या अधिकार हैं, और अगर पता भी हो तो कौन सुनेगा? यह तो ‘ग्राहक देवो भव’ की जगह ‘ग्राहक लुटो भव’ वाला मामला है।

* ‘सब चलता है’ की संस्कृति: बैतूल में इस तरह की खुलेआम धांधली ये दिखाती है कि यहाँ ‘सब चलता है’ वाली संस्कृति कितनी गहरी है। जब नियमों का पालन करवाना ही बंद हो जाए, तो अराजकता फैलना स्वाभाविक है। और इस अराजकता का सीधा नुकसान आम जनता को उठाना पड़ता है।

* राजस्व का चूना या अधिकारियों की मिलीभगत? यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या सरकार को राजस्व का चूना लग रहा है, या फिर यह सब अधिकारियों की मिलीभगत का नतीजा है? बिना बिल के बिक्री से सरकार को कितना नुकसान हो रहा है, इसका हिसाब कौन देगा? या यह सारा अतिरिक्त पैसा किसी और की जेब में जा रहा है?

यह स्थिति वास्तव में चिंताजनक है, जहाँ प्रशासन की उदासीनता से आम नागरिक आर्थिक शोषण का शिकार हो रहे हैं।

 

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